जैसलमेर के महारावल हरराज की पुत्री चाँपादे को अपने पिता से ही काव्य-सृजन की प्रेरणा मिली। महारावल हरराज स्वयं पिंगल शास्त्र के ज्ञाता व साहित्यिक रूचि के थे। महारावल के दरबार में कवियों का आदर होने के कारण अनेक काव्य-कृतियों का सृजन हुआ। साहित्यिक वातावरण में पाली इस राजकुमारी को पृथ्वीराज राठौड़ जैसा प्रतिष्ठित कवी पति रूप में प्राप्त हुआ और उनके सानिध्य से उसके काव्य-सृजन को प्रेरणा मिली होगी। चाँपादे (चंपावती) की कोई विशिष्ट कृति या रचना उपलब्ध नहीं हुई है फिर भी उस के निम्नलिखित दोहे राजस्थानी साहित्य के पाठकों में आज भी बहुत प्रसिद्ध हैं। पृथ्वीराज का पहला विवाह चाँपादे की बड़ी बहन लालादे से हुआ था। लालादे की मृत्यु के पश्चात् पृथ्वीराज ने चाँपादे से दूसरा विवाह किया। छोटी रानी चाँपादे युवा थी, पृथ्वीराज अवस्था में थे, अतः एक दिन पृथ्वीराज ने अपनी अवस्था का जिक्र करते हुए छोटी रानी के यौवन और सौन्दर्य की ओर संकेत करते हुए जब यह कहा —
पीथल धोळा आविया, बहुली लागी खोड़।
पूरे जोवन पदमणी, ऊभी मुख्ख मरोड़।।
अपने पति के आशय को समझ कर चाँपादे ने जो रसमय और उपयुक्त प्रत्युत्तर दिया उसमें उसकी पति परायणता और पति के प्रति अगाध स्नेह-भाव प्रमुख रूप से अभिव्यंजित होता है —
प्यारी कहे पीथल सुणो, धोळां दिस मत जोय।
नरां नाहरां डिगभरां, पाकां ही रस होय।।
खेजड़ पक्कां धोरियां, पंथज गऊधां पाँव।
नरां तुरंगा बन फळां, पक्का पक्का सांव।।
पति के प्रति ऐसा स्नेह और सम्मानपूर्ण भाव रखने के कारण ही राजपूत नारियां भारतीय संस्कृति के आदर्शोँ का भली भांति निर्वाह कर सकीं और एक देश की संस्कृति को गौरवमयी महिमा से मंडित करने में अपना अनुपम सहयोग दिया।
डा.विक्रमसिंह राठौड़,गुन्दोज
राजस्थानी शोध संस्थान, चोपासनी, जोधपुर
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