महोबे के वीर श्रेष्ठ यशोराज सिंह की पत्नी देवलदेवी स्वयं एक वीरांगना थी। महोबे के राजा ने अपमानित करके किसी कारणवश उन्हें देश से निर्वासित किया। देवलदेवी अपने पुत्र आल्हा ऊदल के साथ महोबा छोड़कर कन्नोज चली गयी। जाते समय देवलदेवी ने महोबे के राजा परमाल की रानी मल्हना को कहा – “महोबे पर कभी कोई संकट आ जाय तो याद करना, ये दोनों पुत्र अपनी मातृ- भूमि की प्राणपण से रक्षा करेंगे।” कुछ समय पश्चात् पृथ्वीराज चौहान द्वारा महोबे पर आक्रमण होता है और वहां का राजा परमाल घबराकर महोबे की रक्षा के उपाय हेतु मंत्रियों से परामर्श करता है। कोई उपाय जब वह नहीं खोज पाया तो रानी मल्हना के सुझावानुसार आल्हा ऊदल को कन्नोज से महोबा की रक्षार्थ बुलावा भेजा गया। आल्हा ऊदल अपने अपमान को भूले नहीं थे, अतः महोबे से आये दूत को क्रोध भरे शब्दों में कहा- “महोबा के चंदेलवंशीय राज्य के विस्तार हेतु हमने कोई कसर नहीं रखी थी, परन्तु हमारी सेवाओं के बदले हमें महोबा से निर्वासन का पुरष्कार मिला। अब चाहे भाड़ में जाय महोबा, हमें उससे क्या लेना देना। जहां रहते हैं, वही हमारा घर है।
वीर हृदया देवल देवी ने अपने पुत्रों के ये उद्गार सुने तो वह बहुत दुखी हुई और उसके स्वदेश प्रेम तथा स्वाभिमान को ठेस पहुंची। अपनी जन्मभूमि पर आयी विपदा से वह चिन्तित हुई और उसकी रक्षार्थ अपने पुत्रों को ललकारते हुए कहा – ” मैं आज दो पुत्रों की मां होकर भी निपूती हूँ। मेरी कोख से पैदा हुए हैं, वे भी आज अपनी कुल मर्यादा का हठपूर्वक त्याग कर रहे हैं, अपनी जन्म-भूमि की रक्षा करने से मुंह मोड़ रहे हैं। ऐसे पुत्रों से तो पुत्रों का न होना ही अच्छा था। कायर पुत्र कुल का कलंक होता है। क्या मैंने इस दिन के लिए ही तुम्हारा नौ मास तक गर्भ-भार धारण किया था। अगर तुम में अब भी क्षत्रियत्व शेष है तो जाकर अपनी जन्मभूमि की रक्षा करो। अपने स्वाभिमान से भी ऊंचा देश का मान होता है। तुम राजपूत होकर ऐसी बात करते हो। अपने कर्तव्य पथ से विचलित हो रहे हो, यह तुम्हारे लिए शोभाजनक नहीं है। जाओ, प्राणों का मोह त्याग कर अपनी जन्मभूमि महोबा के मान की रक्षा करो।” वीर जननी ने इन वीरोद्गारों के साथ आल्हा ऊदल को महोबे की रक्षार्थ विदा किया।
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