माहिष्मती के राजा नीलध्वज की महारानी जना वीर प्रवीर की जननी थी। प्रवीर ने चक्रवर्ती युधिष्ठिर के अश्व॒ के माहिष्पती नगरी की सीमा में प्रवेश करते ही पकड़ लिया । अश्व पकड़ने का समाचार पाकर नीलध्वज ने अपने पुत्र प्रवीर को बुला कर डांटते हुए कहा–“प्रवीर ! तुमने अज्ञानतावदा जिस अश्व को पकड़ा है उसे छोड़ दो । वह अश्व युधिष्ठिर का है जो चक्रवर्ती महाराजा हैं, अर्जुन जैसे उनके भाई हैं, जिनसे तू युद्ध करने का दुस्साहस नहीं कर सकता । तुमने यदि अश्व को नहीं छोड़ा तो तुम मेरी तथा समस्त शूरों की मृत्यु का कारण बनोगे। सारा राज्य नष्ट हो जायेगा। अतः अब भी समय है, मेरी सलाह मानो और अपनी मूर्खता छोड़ो ।”
अपने पिता की बात सुनकर प्रवीर दुखी हुआ असमंजस में पड़ गया कि मैं अब क्या करू । अश्व यदि नहीं पकड़ा होता तो और बात थी पर अब पकड़कर उसे छोड़ना कायरता का परिचय देना है । उसने अपनी मन:स्थिति माता जना को बतायी । उस तेजोमयी क्षत्राणी ने अपने पुत्र को दुविधा से उबारा । उसे अपने कतंव्य पथ पर निःसंकोच बढ़ने हेतु प्रोत्साहित करते हुए कहा–
“बेटा ! तुमने यह जो क्षत्रियोचित कार्य किया है, वह ठीक हैं। इसके लिए किसी प्रकार का पश्चाताप करने की आवश्यकता नहीं । क्षत्रिय पुत्र मृत्यु से भयभीत नहीं हुआ करते । युद्ध में मरकर क्षत्रिय वह गति पाता है. जो योगी को प्राप्त होती है । चुनौती पाकर कोई वीर भला कैसे शान्त रह सकता है । बेटे ! तूने आज मेरे दूध की लाज रख ली। में तुझ-सा पुत्र पाकर सचमुच आज धन्य हुई हूं । जा तू युद्ध के लिए तैयार हो, तेरे पिता ने जो कुछ कहा उसका बुरा मत मान, अपने कर्तव्य का निर्वाह कर ।”
महारानी जना ने इसके पश्चात् अपने पति राजा नीलध्वज को खरी-खरी सुनाते हुए कहा–“महाराज ! लगता है, आपके रक्त में क्षत्रिय के योग्य उष्णता शेष नहीं बची । आप में यह भीरुता कैसे व्याप्त हो गयी । अर्जुन के नाम से आप इतने भयभीत क्यों दो रहे हैं । पुत्र ने जिस अश्व को पकड़ा है उसे अर्जुन को सौंपकर अपने प्राण बचाइये, अपना राज्य बचाइये, इसी में आप अपनी प्रतिष्ठा मानते हैं तो अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा कीजिये ।”
अपनी रानी जना की व्यंग्यपूर्ण बातें सुनकर राजा नीलध्वज ने बताया–‘मैं भीरु नहीं हूँ। क्षत्रिय का क्या कर्तव्य होता है, वह मुझे ज्ञात है । अर्जुन यदि अकेला अश्व के साथ होता तो कोई बात नहीं पर मेरे आराध्य श्रीकृष्ण भी तो साथ हैं, उन पर शस्त्र प्रहार कैसे कर सकता हूँ ।”
जना ने प्रत्युत्तर में कहा–“क्षत्रिय के लिए भगवान् ने जो धर्म निश्चित कर दिया है उसका पालन ही अपने आराध्य की सच्ची आराधना है । क्षात्रधर्म का परित्याग कर यदि आप अपने आराध्य को सन्तुष्ट करने की आशया रखते हैं तो यह व्यर्थ है । आपको अपने धर्म पर अविचल देखकर स्वयं श्रीकृष्ण प्रसन्न और सन्तुष्ट होंगे । आज उन्हें अपने भक्त के बाण पुष्पों से भी ज्यादा कोमल प्रतीत होंगे । आप संशय का त्याग कीजिये और आपके आराध्य जो पूजा ग्रहण करने आ गये हैं, उन्हें उसी पूजा अर्थात युद्ध से सेवित कर कृत-कृत्य होइये ।”
अपनी रानी जना के प्रेरणादायी वचनों से राजा नीलध्वज बड़े प्रभावित हुए । उन्हें अपनी पत्नी की बात सत्य प्रतीत हुई । अब उन्होंने विचार बदल कर युद्ध की घोषणा कर दी । युवराज प्रवीर के नेतृत्व में माहिष्मती की सेना ने घनघोर युद्ध किया और युवराज प्रवीर अर्जुन से युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ । अर्जुन ने युद्ध रोक दिया । राजा नीलध्वज अर्जुन से जाकर मिलता है और अर्जुन को अश्व उपहार रूप में भेंट करता है । महारानी जना, जो क्षत्रित्व की साक्षात् मूति थी, इस अपमान को कैसे सहन कर सकती थी कि उसके पुत्र का शव तो अभी रणभूंमि में पड़ा है और उसके पिता उसका प्रतिशोध लेने की बजाय शत्रु का स्वागत कर रहे हैं, उपहार प्रदान कर रहे हैं । राजभवन से निकलकर वह सीधी गंगा के किनारे पहुँची और उसकी गोद में अपने आपको समर्पित कर अपनी हृदयाग्नि को शान्त किया ।
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