बांकावती लिवाण के कछवाहा राजा आनन्दराय की पुत्री थी। इसका विवाह किशनगढ़ के महाराजा राजसिंह के साथ हुआ। बचपन से ही यह काव्यानुरागी व कृष्णभक्त थी। रानी बांकावती अपने आराध्य की भक्ति भावना में सदा निमग्न रहा करती थी। उन्हें बृजदासी रानी बांकावती तथा बृजकुँवारी बांकावती के नाम से भी जाना जाता है। बांकावती ने श्रीमद्भागवत का छन्दोबद्ध अनुवाद राजस्थानी भाषा में किया जो ‘ब्रजदासी भागवत’ के नाम से प्रसिद्ध है। भागवत का यह भाषानुवाद अत्यन्त सरल व सहज रूप में प्रस्तुत किया गया है और आम पाठक के शीघ्र समझ में आने वाला है।
ब्रजदासी भागवत में प्रारम्भ के मंगलाचरण में विविध देवताओं और ऋषियों को नमन करने के पश्चात् गुरु को वंदन इस प्रकार किया गया है –
श्री गुरुपद बंदन करू, प्रथमहि करू उछाह।
दम्पति गुरु तिहुं की कृपा, करो सकल मो चाह।
बार बार बंदन करौं, श्री वृषभान कुमारि।
जय जय श्री गोपाल जू, कीजै कृपा मुरारि॥
मंगलाचरण के वंदन के पश्चात् भागवत के संपूर्ण कथा प्रसंगों को भी चौपाई और दोहा छन्द के माध्यम से अनूदित किया है। भक्ति के सरल मार्ग का अनुसरण करते हुए लोग इस त्रिविध संतापों से मुक्ति पा सकते हैं। बहुत ही सरल उदाहरणों द्वारा यह बात ब्रजदासी भागवत में समझायी हुई है।
परम प्रेम परमेश्वर स्वामी,
हम तिय ध्यान धरत हिय ठामी।
यहै त्रिविध झूठौ संसारा,
भांति भांति बहुविधि निरधारा॥
अरु सांचे सो देत दिखाई,
सो सतिता प्रभु ही की छाई।
जैसे रेत चमक मृग देखें,
जल को भ्रम मन मांहि सपेखें ||
जल भ्रम झूठ रेत ही सत्या,
भ्रम सों दीस परत जल छत्या।
जल भ्रम कांच मांहि ज्यों होता,
सो झूठो सति कांच उदौता ||
उनके द्वारा रचित रचनाएँ, काव्य व दोहे काफी प्रसिद्ध हुए और उन्हें काफी पढ़ा गया। जिनमे कुछ दोहे ये है –
- असु गज भूषण
- औरहु कुंवरि कुटंव
- बार बार बंदन करौं
- बार बार वंदन करौं
- चंद वदन पंकज
- गावत मंगल गीत
- हों गंधी दरबार कौ
- जीवन मोर सुजांन
- नमो नमो भगवान रहे
- पाय नेग आनंद लहि
- प्रेम विरह को बढ़त हैं
- रह गये इकटक पिय
- श्री गुरु पद वंदन करूं
- वंदौं नारद व्यास शुक
- यों कहते द्रग अरुन
जगत् की नश्वरता और माया के भ्रम से बचने का संदेश जो यहां के मनीषियों ने दिया, उसे हृदयंगम करने तथा लोक-कल्याण की भावना से प्रचारित करने में भी राजपूत नारियां पीछे नहीं रहीं।
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