रानी उमादे जैसलमेर के रावल लूणकर्ण की पुत्री थी। उमादे सुशील और गुणवती थी। रावल लूणकर्ण ने मारवाड़ के तत्कालीन शासक मालदेव की शक्ति-सम्पन्नता से भयभीत हो अपनी पुत्री का उससे विवाह कर सम्बन्ध सामान्य बनाने की सोची। उमादे की सगाई का नारियल मालदेव को भेजा। मालदेव ने इसे स्वीकार कर लिया और ससैन्य अपने प्रमुख सामन्तों के साथ विवाह के लिए जैसलमेर पहुंचा। बारातियों की नगर के बाहर समुचित व्यवस्था की गयी। लूणकर्ण मालदेव को विवाह के भुलावे मे रखकर उसकी हत्या करने का इच्छुक था और इसके लिए वह अपने विश्वस्त लोगों के साथ मंत्ररणा कर रहा था कि मालदेव की हत्या विवाह के पूर्व की जाय या विवाह के पश्चात्। किसी तरह इसकी सूचना उमादे को मिल जाती है। उसे अपने पिता के इस कुत्सित विचार से बड़ी घृणा उत्पन्न होती है। पिता द्वारा अपनी पुत्री के मांगलिक विवाहोत्सव पर ऐसी योजना उसे भली नहीं लगी पर राज्य-लिप्सा, सत्ता की भूख और राजनैतिक महत्वाकांक्षा व्यक्ति को विवेकशून्य कर अंधा बना देती है। अतः उसने अपने पिता को समझाना व्यर्थ समझा और राघवदेव नामक राजपुरोहित के माध्यम से मालदेव को इसकी सूचना देकर सतर्क कर दिया।
उमादे से प्राप्त संकेत से मालदेव सतर्क हो गया और उसने पूरी सावधानी बरती, जिससे रावत लूणकर्ण को चूक (हत्या) करने का मौका नहीं मिला। विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया परन्तु उमादे भटियाणी के किस्मत में पति का सुख नहीं लिखा था। मालदेव उमादे की दासी भारमली के नृत्य-गान और मनोविनोद में रीझे रहे। प्रथम रात्रि में अपनी नववधू उमा के पास नहीं पहुंचे तो उमा को कामुक और चरित्रहीन पति पर बहुत क्रोध आया और उसने निश्चय कर लिया कि ऐसे पति से तो ब्रह्मचारिणी रहकर जीवन बिताना अच्छा। हुआ भी यही, उमा फिर कभी मालदेव से नहीं मिली। राव मालदेव ने उससे माफी मांगी, फिर भी वह मानिनी नहीं मानी। बारहठ आसा उसे लेने गया पर उसके यह कहने पर कि –
मान रखे तो पीव तज, पीव रखे तज मान।
दो दो गयन्द न बन्धही, कबहुक एके ठांण॥
उसने अपने स्वाभिमान की रक्षा पर ही दृढ़ रहना उचित समझा। इतिहास में यही उमादे भटियाणी ‘रूठीराणी’ के नाम से जानी जाती है।
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